वर्धा आर्वी, 28 जुलाई
लोकसभा के मानसून सत्र में पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले और “ऑपरेशन सिंदूर” की पृष्ठभूमि में हुई चर्चा में राष्ट्रवादी कांग्रेस (शरद पवार गुट) के लोकसभा सांसद माननीय श्री अमर काले ने भाग लिया।
चर्चा की शुरुआत करते हुए उन्होंने पहलगाम आतंकवादी हमले में शहीद हुए नागरिकों को श्रद्धांजलि अर्पित की। उन्होंने सदन का ध्यान एक महत्वपूर्ण परंतु उपेक्षित मुद्दे की ओर आकर्षित किया—स्थानीय गाइड सैय्यद आदिल हुसैन शाह ने पर्यटकों की जान बचाते हुए अपना बलिदान दिया। उन्होंने उनके साहस को सलाम किया और उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की। साथ ही, उन्होंने भारतीय सेना द्वारा “ऑपरेशन सिंदूर” को सफलतापूर्वक अंजाम देने के लिए उनका हार्दिक अभिनंदन किया और सेना की कार्यकुशलता की सराहना की।
आगे अपने भाषण में उन्होंने चर्चा के स्तर पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने खेद प्रकट किया कि देश में इतना बड़ा आतंकवादी हमला होने के बावजूद, सदन में चर्चा अपेक्षित गंभीरता के साथ नहीं हुई। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों को राजनीतिक रंग देना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।
उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के “राष्ट्र प्रथम” नारे का उल्लेख करते हुए कहा कि जब इस प्रकार का नारा दिया जाता है, तो उसी अनुसार आचरण भी अपेक्षित होता है। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, उससे गलतियाँ होती हैं, परंतु उन गलतियों को स्वीकार कर सुधारना भी सरकार की जिम्मेदारी होती है। उन्होंने कहा कि 26/11 मुंबई हमले के दौरान भारत ने अजमल कसाब को जीवित पकड़कर पाकिस्तान के आतंकवाद से संबंधों को पूरी दुनिया के सामने उजागर किया था। इसलिए सत्य को स्वीकार करना सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है।
माननीय अमर काले ने एक और गंभीर मुद्दा उठाया कि पहलगाम हमले को तीन महीने बीत जाने के बावजूद, हमले में शामिल पाँच आतंकवादी अब तक पकड़े नहीं गए हैं। यह सरकार की बड़ी विफलता है, ऐसा उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा।
उन्होंने कारगिल युद्ध में जम्मू-कश्मीर के गुज्जर और बकरवाल समुदाय के योगदान को रेखांकित किया। उन्होंने सवाल उठाया कि 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान महत्त्वपूर्ण खुफिया जानकारी देने वाला यह समुदाय आज ऐसी जानकारी क्यों नहीं दे रहा? और अगर नहीं दे रहे हैं तो सरकार से उनकी दूरी क्यों बढ़ी है, इस पर सरकार को आत्ममंथन करना चाहिए।
उन्होंने इस घटना की तुलना 1971 के भारत-पाक युद्ध से करते हुए कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन के दबाव को नज़रअंदाज़ करते हुए 13 दिन का युद्ध लड़ा, जिसके परिणामस्वरूप 16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश का निर्माण हुआ और 94,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया। उन्होंने कहा कि आज देश की जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी ऐसे ही साहसिक निर्णय की अपेक्षा रखती है।
उन्होंने 2014 के बाद प्रधानमंत्री द्वारा किए गए विदेश दौरों का भी उल्लेख किया—अमेरिका (9 बार), चीन (5 बार), जापान (8 बार), नेपाल (5 बार), ऑस्ट्रेलिया (1 बार), यूरोपीय देश (15–20 बार)। उन्होंने पूछा कि इन दौरों से देश की विदेश नीति को वास्तव में क्या लाभ मिला?
पहलगाम हमले के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा पाकिस्तान के सैन्य प्रमुख को डिनर पर आमंत्रित करना अत्यंत दुखद बात है। साथ ही, चीन के प्रधानमंत्री से कई बार हुई बैठकों के बावजूद चीन के विदेश मंत्री द्वारा यह कहना कि चीन-पाकिस्तान के संबंध “लोहे जैसे मजबूत” हैं, भारत की विदेश नीति की असफलता को दर्शाता है।
अंत में, उन्होंने कहा कि IMF, ADB और वर्ल्ड बैंक से पाकिस्तान को लगभग 44 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता मिली है। यह विदेश नीति की विफलता का संकेत है और इस पर देशवासियों को जवाब स्वयं प्रधानमंत्री को देना चाहिए, ऐसी अपेक्षा उन्होंने व्यक्त की।
