- 68 साल बाद राजनीतिक मैदान से‘कांग्रेस’ बाहर
- आजादी के बाद पहली बार कम्युनिस्टों की सेंध
वर्धा : वर्धा के राजनीतिक इतिहास पर नजर डाले तो वर्धा संसदीय क्षेत्र को कांग्रेस का स्वर्णिम युग माना जाता था. लेकिन गुटबाजी कारण अब भाजपा ने यहां पैर जमा लिए है. शुरुआती दाैर में हर चुनाव में कांग्रेस और माकपा के बीच टक्कर होती थी. इसके बाद यह मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच होता चला गया. लेकिन अबकी बार कांग्रेस चुनावी महासंग्राम से गायब है.
वर्ष 1991 में कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार रामचंद्र घंगारे ने पहली बार कांग्रेस के उम्मीदवार को पराजित कर कांग्रेस के इस गढ़ को ढहा दियाया था. 1951 से 1991 तक लगातार 40 वर्षों तक कांग्रेस की सत्ता को कम्युनिस्ट घंगारे ने पहली बार सेंध लगाने में सफलता अर्जित की थी. इसके बाद वर्ष 1996 में भाजपा के विजय मुड़े भाजपा के पहले सांसद बने. वर्ष 2004 में भाजपा के उम्मीदवार सुरेश वाघमारे ने वर्धा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में जीत हासिल की थी. इन 3 अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यहां से 12 बार कांग्रेस के उम्मीदवारों ने चुनाव में जीत हासिल की है.
वर्धा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र जिस वक्त मध्य प्रदेश में शामिल था, तब वर्ष 1951 में यहां से पहले सांसद के रूप में कांग्रेस के नारायण अग्रवाल ने जीत हासिल की थी. उसके बाद वर्ष 1957 में बॉम्बे स्टेट में वर्धा निर्वाचन क्षेत्र को शामिल कर दिया गया. उस वक्त महात्मा गांधी के अनुयायी जमनालाल बजाज के पुत्र कमलनयन बजाज ने जीत हासिल की थी. वर्ष 1962 में कमलनयन बजाज के विरोध में नारायणसिंह श्यामपतसिंह विखे मैदान में थे. लेकिन इस बार भी कमलनयन बजाज ने ही बाजी मारी. 1967 में हुए लोकसभा चुनाव में वर्धा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से कमलनयन बजाज ने पुन: जीत हासिल की.
1971 में जगजीवनराम कदम और 1977 में संतोषराव गोड़े वर्धा से सांसद बनकर दिल्ली पहुंचे. 1996 में बीजेपी के टिकट पर विजय मुड़े पहली बार भाजपा के सांसद बने थे. इस जीत के बाद से वर्धा में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर हो रही है. लेकिन अब राजनीतिक स्थिति इतनी बदल गई कि जिस निर्वाचन क्षेत्र पर 68 सालों से कांग्रेस का दबदबा था, वहां 2024 के चुनाव में ईवीएम से कांग्रेस पार्टी ही गायब हो गई है
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