खत्म होने की कगार पर टेंभुरणी के वृक्ष और फल

  • अनेक औषधीय गुणों से भरपूर ,
  • वर्धा जिले में अब खत्म होने की कगार पर
  • वन्यजीवप्रेमी वाजपेयी ने की संवर्धन की मांग

वर्धा : वनसंपदा में जंगली मेवा के रूप में टेंभुरणी के फलों को पहचाना जाता है. लगभग 80 के दशक तक यह फल बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध रहते थे. लेकिन जंगलों में इस फल के वृक्ष खत्म होने की कगार पर पहुंच गए हैं. ऐसे में वन विभाग ने इन पाैधों, वृक्षों का संवर्धन अभियान चलाने की आवश्यकता है. वन्यजीव प्रेमी जुगलकिशोर वाजपेयी ने ऐसे औषधीश गुणों वाले पेड़ पाैधों के बीज उपलब्ध कराकर पाैधारोपण अभियान चलाने की मांग की है.
वर्धा जिले के वन्य क्षेत्र मासोद, महाकाली, ढगा जंगल, दहेगांव गोंडी, खरांगणा, लादगड, गारपिठ, ब्राम्हणवाडा , खैरवाडा क्षेत्र कुछ क्षेत्र में टेंभुरणी के वृक्ष पाये जाते थे . परंतु पहले से ही इनकी संख्या कम थी. लेकिन समय बितते बितते यह पेड़ पुर्णतः दुर्लभ होने कागार पर है. 1980 के दशक में मासोद के नदी तट पर ग्रामीणों द्वारा इसके पत्ते तोड़कर और उसके बिडी के लिए गड्डीयां बनाकर सुखाकर रखे जाते थे लेकिन आज बडे मुश्किल से जंगल मे एक दो पेड़ रह गए है. वन्यजीव प्रेमी जुगलकिशोर वाजपेयी ने बताया कि ये आयुर्वेदिक वृक्ष है. इसका आयुर्वेद में अपना स्थान है, साधारणता ये वानस्पति 20 से 25 मीटर ऊंची हुआ करती है. इसका फल महाराष्ट्र में टेंभूरणी के नाम से जाना जाता है. सुरूवात में यह हरे रंग का और पकने पर पिला तंबीया रंग का बड़े बेर के आकार का होता है. आज की पीढी को इसके बारे पूछे जाने पर नई पीढी इस फल और वृक्ष वर्णन नहीं कर पाएंगे. क्योंकि इन्होंने यह फल और वृक्ष कभी देखा ही नहीं है.
वाजपेयी बताते हैं कि ये फल फागुन के बाद ही फलता फूलता था. उस दशक की पीढी आज भी टेंभूरणी का स्वाद लेने तरस रही है. इसे ग्रामीण भाग में रानमेवा कहा जाता था. इस फल को तेंदू, केंदू, गाब, गाभ नाम से भी पहचानते है. तेंदू एक प्रकार का फल (Tendu Fruit) है जो चीकू से भी मीठा और कई आयुर्वेदिक गुणों से भरपूर है. तेंदू के फल हल्के पीले रंग के होते हैं. शायद आप सोच रहे होंगे इस छोटे-से फल को बीमारियों के उपचार के लिए कैसे इस्तेमाल किया जाता है. इसके पत्तों से बीड़ी बनाई जाती है. इसकी लकड़ी का उपयोग फर्नीचर बनाने के लिए किया जाता है.

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